नवरात्र का दूसरा दिन – माता ब्रह्मचारिणी कथा, पूजा विधि तथा मंत्र
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कौन है मां ब्रह्मचारिणी?
माँ दुर्गा की नवशक्तियों का दूसरा स्वरूप माता ब्रह्मचारिणी का है। नवरात्रि के दूसरे दिन माता ब्रह्मचारिणी की पूजा होती है। ब्रह्मचारिणी अर्थात ब्रह्म + चारिणी, ब्रह्म शब्द का अर्थ तपस्या है तथा चारिणी का तात्पर्य है तप की आचरण करने वाली। विद्यार्थियों के लिए और तपस्वियों के लिए इनकी पूजा बहुत ही शुभ फलदायी होती है। अन्य देवियों की तुलना में वह अतिसौम्य, क्रोध रहित और तुरंत वरदान देने वाली देवी हैं।
इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल रहता है। नवरात्र में माता ब्रह्मचारिणी की पूजा यश, सिद्धि और सर्वत्र विजय के लिए की जाती। मां ब्रह्मचारिणी के दायें हाथ में जप की माला तथा उनके बायें हाथ में कमण्डल रहता है। मां ब्रह्मचारिणी का यह रूप काफी शांत और मोहक माना जाता है।
नवरात्र के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी के पूजन का महत्व
शास्त्रों के अनुसार देवी ब्रह्मचारिणी मंगल ग्रह की शासक हैं. वह सभी भाग्य की दाता हैं और वह अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करती है. मंगल दोष और कुंडली में मंगल की प्रतिकूल स्थिति से उत्पन्न समस्याओं को दूर करने के लिए उनकी पूजा की जाती है.
श्रद्धा के साथ नवरात्रि के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करने से सुख, आरोग्य और प्रसन्नता की प्राप्ति होती है। साथ ही माता के भक्त हर प्रकार के भय से मुक्त हो जाते हैं।
माता ब्रह्मचारिणी किसकी पुत्री थी?
मार्कंडेय पुराण के मुताबिक यह मन जाता है की माता ब्रह्मचारिणी पर्वतराज हिमालय और मैना की पुत्री हैं। पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी. इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया।
ब्रह्मचारिणी माता की कथा
माता ब्रह्मचारिणी पूर्व जन्म में पर्वत राज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं, नारद जी के उपदेश से माता ने भगवान शंकर जी को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए बहुत ही कठिन और कठोर तपस्या की थी।
इसी दुष्कर और कठोर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। इन्होंने एक हज़ार वर्ष तक केवल फल खाकर व्यतीत किए और सौ वर्ष तक केवल शाक पर निर्भर रहीं। उपवास के समय खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के विकट कष्ट सहे, इसके बाद में केवल ज़मीन पर टूट कर गिरे बेलपत्रों को खाकर तीन हज़ार वर्ष तक भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। कई हज़ार वर्षों तक वह निर्जल और निराहार रह कर व्रत करती रहीं।
इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का पूर्वजन्म का शरीर एकदम क्षीण हो गया था। उनकी यह दशा देखकर उनकी माता मैना देवी अत्यन्त दुखी हो गयीं। उनकी इस तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया था। देवता, ॠषि, सिद्धगण, मुनि सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व पुण्यकृत्य बताते हुए उनकी सराहना करने लगे।
अन्त में पितामह ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें सम्बोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा- ‘हे देवी, आज तक किसी ने इस प्रकार की ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी। तुम्हारी मनोकामना जरूर पूर्ण होगी। भगवान चन्द्रमौलि शिव जी तुम्हें पति रूप में अवश्य ही प्राप्त होंगे। अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ। जिसके फलस्वरूप यह देवी भगवान भोले नाथ की वामिनी अर्थात पत्नी बनी।
इस देवी की कथा का सार यह है की जीवन के कठिन संघर्षो में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए।
मां ब्रह्मचारिणी की पूजा कैसे की जाती है?
- आप अगर नवरात्र का व्रत करते हैं, तो आपको इस दौरान ब्रह्म मुहूर्त में ही सोकर उठ जाना चाहिए।
- सबसे पहले आप सुबह उठकर नित्य क्रिया तथा स्नानादि करके सफेद अथवा पीले रंग का कपड़े धारण करें।
- तत्पश्चात आप सूर्य देव को जल दें, फिर पूरे घर में गौमूत्र और गंगाजल का छिड़काव करें।
- इसके बाद आप पूजा घर अथवा कलश स्थापन किये गए जगह की साफ सफाई कर ले।
- इसके बाद आप नवरात्र के लिए स्थापित किए गए कलश में मां ब्रह्मचारिणी का आह्वान करें।
- इस समय कोई भी नकारात्मक विचार मन में न लाएं और न ही किसी के प्रति अपने मन में दुर्भावना रखें। शांत रहने की कोशिश करें। झूठ न बोलें और गुस्सा करने से भी बचें। अपनी इंद्रियों पर काबु रखें और मन में कामवासना जैसे गलत विचारों को न आने दें।
- अब मां के समक्ष जाकर हाथों में सफेद पुष्प लेकर सच्चे मन से मां के नाम का स्मरण करें और घी का दीपक जलाकर मां की मूर्ति का पंचामृत से अभिषेक करें।
- फिर अलग-अलग तरह के फूल, अक्षत, कुमकुम एवं सिन्दुर माता ब्रह्मचारिणी को अर्पित करें।
- देवी को पिस्ते से बनी मिठाई का भोग लगाएं। मां ब्रह्मचारिणी को आप मिश्री, चीनी और पंचामृत का भी भोग लगाया सकते है।
- इसके बाद पान, सुपारी, लौंग इत्यादि माँ ब्रह्मचारिणी को अर्पित करें।
- इसके बाद माँ ब्रह्मचारिणी जी के निचे दिए गए बीज मंत्र की माला अर्थात 108 बार जप करे।
- इसके बाद माता ब्रह्मचारिणी की आरती उतारे। निचे आरती को पढ़े।
- पूजा के अंत में निचे दिए गए क्षमा प्रार्थना जरूर पढ़े।
माँ ब्रह्मचारिणी के बीज मंत्रो का जाप करने से आपके व्यक्तित्व में निखार आता है। आप अपने जीवन क्षेत्र में उन्नति की ओर अग्रसर होते है।
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माँ ब्रह्मचारिणी बीज मंत्र
ब्रह्मचारिणी:ह्रीं श्री अम्बिकायै नम:
माँ ब्रह्मचारिणी देवी का मंत्र
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
माँ ब्रह्मचारिणी ध्यान मंत्र
वन्दे वांछित लाभायचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
जपमालाकमण्डलु धराब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालंकार भूषिताम्॥
परम वंदना पल्लवराधरां कांत कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥
माँ ब्रह्मचारिणी देवी स्तोत्र
तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥
माँ ब्रह्मचारिणी देवी कवच
त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।
मां ब्रह्मचारिणी की आरती
जय अंबे ब्रह्माचारिणी माता।
जय चतुरानन प्रिय सुख दाता।
ब्रह्मा जी के मन भाती हो।
ज्ञान सभी को सिखलाती हो।
ब्रह्मा मंत्र है जाप तुम्हारा।
जिसको जपे सकल संसारा।
जय गायत्री वेद की माता।
जो मन निस दिन तुम्हें ध्याता।
कमी कोई रहने न पाए।
कोई भी दुख सहने न पाए।
उसकी विरति रहे ठिकाने।
जो तेरी महिमा को जाने।
रुद्राक्ष की माला ले कर।
जपे जो मंत्र श्रद्धा दे कर।
आलस छोड़ करे गुणगाना।
मां तुम उसको सुख पहुंचाना।
ब्रह्माचारिणी तेरो नाम।
पूर्ण करो सब मेरे काम।
भक्त तेरे चरणों का पुजारी।
रखना लाज मेरी महतारी।
क्षमा याचना मंत्र
आवाहनं न जानामि न जानामि तवार्चनम्। पूजां श्चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वर॥
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरं। यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्मतु।